क्या स्वामी दयानंद की मृत्यु विष के कारण होने से क्या स्वामी जी की महानता कम हो जाती हैं?

क्या स्वामी दयानंद की मृत्यु विष के कारण होने से क्या स्वामी जी की महानता कम हो जाती हैं?
कुछ अज्ञानी लोग (ढोंगी रामपाल एंड कंपनी) स्वामी दयानंद की यह कहकर निंदा करते हैं की की स्वामी जी अगर इतने ही बड़े योगी थे तो उनकी मृत्यु विष के कारण तड़प तड़प कर क्यूँ हुई।
वे लोग यह क्यूँ भूल जाते हैं की संसार में अनेक महापुरुषों को मृत्यु का गमन अनेक कष्टों को सहते हुए करना पड़ा था जैसे
आदि शंकराचार्य को उन्ही के दो चेलों ने विष दे दिया था जिससे उनकी मृत्यु कई मास तक बीमार रहने के पश्चात हुई थी।
योगिराज श्री कृष्ण जी महाराज की मृत्यु पैर में तीर लगने से हुई थी।
सिखों के गुरु तेग बहादुर का अंत औरंगजेब के तलवार से उनका सर काटने से हुआ था।
वीर शिवाजी की मृत्यु कई मास तक बीमार रहने के पश्चात हुई थी।
महाराणा प्रताप जीवन भर रेगिस्तान में अपने शरीर को तपाते रहे, उनका असमय अंत अत्यधिक परिश्रम और आराम न मिलने के कारण हुआ था।
१८५७ के स्वतंत्रता संग्राम में वीर कुँवर सिंह की मृत्यु वृद्ध अवस्था में अपने जख्मों के कारण हुई थी। जब वे नाँव से नदी पार कर रहे थे तो एक अंग्रेज सिपाही की गोली उनके बाजु में आकर लगी थी। उन्होंने अपनी तलवार से अपनी बाजु को काट डाला जिससे उनकी उस समय तो प्राण रक्षा हो गई परन्तु उसी घाव के कारण उनकी मृत्यु हो गई थी।
१९४७ के भारत के स्वाधीनता संग्राम में कई हजार ज्ञात और अज्ञात शहीदों की मृत्यु फाँसी पर लटकने से हुई जिनमे रामप्रसाद बिस्मिल, भगत सिंह, सुखदेव आदि प्रमुख थे।
क्या महान व्यक्ति की महानता उनकी अकाल मृत्यु से अथवा रोग आदि से पीड़ित होकर कम हो जाती हैं?
नहीं तो फिर यह व्यर्थ का आक्षेप स्वामी दयानंद पर लगाना की उनकी मृत्यु रोग के कारण हुई मुर्खता नहीं तो और क्या हैं!
डॉ विवेक आर्य
We are thankful to Dr Vivek Arya for this writeup- Admin Pakhandkhandani

नियोग पर आक्षेप का उत्तर

कुछ अज्ञानी लोग स्वामी दयानंद रचित सत्यार्थ प्रकाश पर नियोग विषय को लेकर आक्षेप करते है। उनका दोष केवल इतना ही हैं कि वे नियोग के विषय में उन्हें कुछ भी ज्ञान नहीं हैं और इस विषय में अधूरी जानकारी होने के कारण वे स्वामी दयानंद के मूल उद्देश्य को समझ नहीं पाते हैं और व्यर्थ वितंडा करते हैं।

शंका 1 क्या नियोग करना धर्म हैं?

जिस किसी भी आस्तिक व्यक्ति ने वैदिक सिद्धान्तों का व्यापक अध्ययन किया है वह कर्म को तीन प्रकार का मानता है।
1. धर्म 2. अधर्म, 3. आपद्धर्म।

1. धर्म – वह सब कर्म जिनके करने से पुण्य और जिनके न करने से पाप होता है। जैसे सन्ध्या (सुबह शाम परमात्मा का ध्यान स्मरण) करना, सुपात्र को दान देना, वाणी से सत्य, प्रिय और पहितकारी बोलना, सुख दुःख और हानि लाभ में समान रहना आदि।
2. अधर्म- उन कर्मो का नाम है जिनके करने से पाप और जिनके न करने से पुण्य होता है जैसे शराब पीना, जुआ खेलना, चोरी, डकैती करना, ठगना, गाली देना, अपमान करना, निरापराध को दण्ड देना आदि।
3 .आपद्धर्म – वे सभी कर्म जिनको सामान्य स्थितियों में करना अच्छा नहीं कहा जाता परन्तु जिनको आपदा अथवा संकट में करना पाप कर्म नहीं कहलाता हैं। जैसे शल्य चिकित्सक द्वारा प्राण रक्षा के लिए मनुष्य के शरीर पर चाकू चलाना, देश कि सीमा पर शत्रु के प्राणों का हरण करना, जंगल में नरभक्षी शेर का शिकार करना, सुनसान द्वीप पर प्राण रक्षा के लिये माँस आदि ग्रहण करना आदि।

विवाह धर्म का अंग है, व्याभिचार अधर्म का अंग है ठीक वैसे ही नियोग आपद्धर्म का अंग है।

शंका 2 . नियोग का मूल उद्देश्य क्या हैं ?

प्रिय पाठकों कृपया एक साधारण से प्रश्न पर विचार करें। यदि आपसे पूछा जाए कि आप रोटी, चावल, दाल, सब्जी, दूध, दही आदि कब खाते हैं तो आप कहेंगे “प्रतिदिन” । अब यदि आप से पूछा जाए कि कुनैन आप कब खाते हैं तो आप कहेंगे कि “केवल मलेरिया में” । क्या कड़वी कुनैन भी खाने की चीज है । परन्तु मलेरिया में हम न खाने वाली वस्तु को भी खाते हैं ताकि हमारी जान बच जाए। जैसे रोटी चावल आदि सामान्य जीवन का अंग है ठीक इसी तरह विवाह भी सामान्य जीवन का अंग है । जैसे न खाने वाली कुनैन भी आपत्ति में खाना उचित होता है इसी तरह सामान्य जीवन का अंग न होते हुए भी आपत्ति काल में नियोग सही होता है।

सभी आक्षेपकों ने नियोग को अनैतिक कहा और इसकी निन्दा की। परन्तु किसी ने भी इस बात पर ध्यान नहीं दिया कि नियोग मूलतः समाज व्यवस्था का सन्तुलन रखने और व्याभिचार को बचाने के लिए ही एक आपद्धर्म है।

जैसे स्वस्थ व्यक्ति को दवा की जरूरत नहीं है वैसे ही सामन्य रूप से संतान उत्पन्न होने पर भी नियोग की जरूरत नहीं है । जैसे कुछ परिस्थितियों मे दवा के बिना शरीर मर जाता है या स्थायी रूप से विकृत /अक्षम हो जाता है वैसे ही बिना नियोग के व्याभिचार से समाज विकृत हो जाता है। जैसे चिकित्सा के कुछ नियम हैं (जैसे दवा की मात्रा /पथ्य/अपथ्य) वैसे नियोग के भी कुछ नियम हैं । जैसे बिना नियम के दवाई लाभ के स्थान पर हानि करती है वैसे ही बिना नियम पालन के नियोग समाज को हानि पहुंचाता है।
नियोग का केवल और केवल एक ही प्रयोजन हैं असक्षम व्यक्ति के लिए संतान उतपन्न करने के लिए, विधवा अथवा जिसका पति उपलब्ध न हो उसे संतान उत्पन्न करने के लिए जिससे उसका जीवन सुचारु प्रकार से व्यतीत हो सके, समाज में मुक्त सम्बन्ध पर लगाम लगाकर, उसे नियम बद्ध कर व्यभिचार को बढ़ने से रोकने के लिए।

शंका 3. व्याभिचार और नियोग में क्या अन्तर हैं?

व्याभिचार और नियोग में अन्तर – बहुत से लोग आलोचना करते हुए कहते हैं कि व्याभिचार और नियोग एक समान हैं। दोनों में कोइ अन्तर नहीं है। इसलिए नियोग भी पाप और अधर्म है। जैसे अपराधी किसी को चाकू से घायल करता है या कोई भी अंग काटता है तो वह अपराध है क्योंकि उसमें कोई नियम और विधि नहीं है। परन्तु जब एक शल्य चिकित्सक किसी रोगी का कोइ अंग चाकू से काटता है तो वह नियम से करता है । भले ही वह चाकू से रोगी को चोट पहुंचा रहा है परन्तु वह चाकू का प्रयोग नियम और चिकित्सा विधि के अनुसार रोग़ी के हित के लिए करता है। इसी प्रकार व्याभिचार और वेश्यागमन का कोइ नियम नहीं है और समाज के लिए हानिकारक है। परन्तु नियोग विधि और नियमों से बंधा हुआ है और समाज के हित में है।

शंका 4 . महर्षि दयानन्द के नियोग विषय पर क्या विचार हैं?

ॠग्वेदादि भाष्य भूमिका के नियोग प्रकरण में महर्षि दयानन्द जी लिखते हैं –

“इसी प्रकार से विधवा और पुरूष तुम दोनो आपत्काल में धर्म करके सन्तान उत्पत्ति करो और उत्तम-उत्तम व्यवहारों को सिद्ध करते जाओ। गर्भ हत्या या व्याभिचार कभी मत करो। किन्तु नियोग ही कर लो। यही व्यवस्था सबसे उत्तम है।”
इस वाक्य से अर्थ निकलता है -1. नियोग आपद्धर्म है क्योंकि नियोग केवल आपत्काल मे किया जाता है । 2. व्याभिचार और गर्भपात अधर्म/महापाप है इसलिए व्याभिचार और गर्भपात नहीं करना चाहिए। 3. नियोग व्यभिचार और गर्भपात जैसे महापापों से बचने का उपाय है।
अधिक जानकारी के लिए सत्यार्थ प्रकाश में नियोग विषय को पढ़े।

शंका 5. क्या प्राचीन काल में नियोग व्यवहार का प्रयोग होता था?

निस्संदेह होता था महाभारत/पुराण/स्मृति में नियोग के प्रमाण

व्यासजी का काशिराज की पुत्री अम्बालिका से नियोग- महाभारत आदि पर्व अ 106/6

धृतराष्ट्र व्यास के वीर्य से उत्पन्न हुआ- देवी भगवत स्कन्द 2/6/2

वन में बारिचर ने युधिस्टर से कहा- में तेरा धर्म नामक पिता- उत्पन्न करने वाला जनक हूँ- महाभारत वन पर्व 314/6

उस राजा बलि ने पुन: ऋषि को प्रसन्न किया और अपनी भार्या सुदेष्णा को उसके पास फिर भेजा- महाभारत आदि पर्व अ 104

कोई गुणवान ब्राह्मण धन देकर बुलाया जाये जो विचित्र वीर्य की स्त्रियों में संतान उत्पन्न करे- महाभारत आदि पर्व 104/2

उत्तम देवर से आपातकाल में पुरुष पुत्र की इच्छा करते हैं- महाभारत आदि पर्व 120/26

परशुराम द्वारा लोक के क्षत्रिय रहित होने पर वेदज्ञ ब्राह्मणों ने क्षत्रानियों में संतान उत्पन्न की- महाभारत आदि पर्व 103/10

पांडु कुंती से- हे कल्याणी अब तू किसी बड़े ब्राह्मण से संतान उत्पन्न करने का प्रयत्न कर- महाभारत आदि पर्व 120/28

सूर्ष ने कुंती से कहा- तू मुझसे भय छोड़कर प्रसंग कर- महाभारत आदि पर्व 111/13

किसी कुलीन ब्राह्मण को बुलाकर पत्नी का नियोग करा दो, इनमे कोई दोष नहीं हैं- देवी भगवत 1/20/6/41

व्यास जी के तेज से में भस्म हो जाऊगी इसलिए शरीर से चन्दन लपेटकर भोग कराया- देवी भगवत 1/20/65/41

काम कला जानने वाले व्यास जी को दासी ने संतुष्ट किया- देवी भागवत 2/6/4

भीष्म जी ने व्यास से कहा माता का वचन मानकर , हे व्यास सुख पूर्वक परे स्त्री से संतान उत्पत्ति के लिए विहार कर- देवी भागवत 6/24/46

सूर्य ने कुंती से कहा-भय मत करो संग करो- महाभारत अ। पर्व 111/13

वह तू केसरी का पुत्र क्षेत्रज नियोग से उत्पन्न बड़ा पराकर्मी – वाल्मीकि रामायण किष कांड 66/28

मरुत ने अंजना से नियोग कर हनुमान को उत्पन्न किया – वाल्मीकि रामायण किष कांड 66/15

राम द्वारा बाली के मारे जाने पर उसकी पत्नी तारा ने सुग्रीव से संग किया – गरुड़ पुराण उतर खंड 2/52

बिना संतान वाले की स्त्री बीज लेले- गौतम स्मृति 29

जिसका पति मर गया हैं-वह 6 महीने बाद पिता व भाई नियोग करा दे- वशिष्ट स्मृति 17/486

किन्ही का मत हैं की देवर को छोड़कर अन्य से नियोग न करे- गौतम स्मृति 18

जिसका पति विदेश गया हो तो वह नियोग कर ले- नारद स्मृति श्लोक 98/99/100

देवर विधवा से नियोग करे- मनु स्मृति 9/62

आपातकाल में नियोग भी गौण हैं- मनु 9/58

नियोग संतान के लोभ के लिए ही किया जाना चाहिए- ब्राह्मण सर्वस्व पृष्ट 233

यदि राजा वृद्ध हो गया या बीमार रहता हो तो अपने मातृकुल तथा किसी अन्य गुणवान सामंत से अपनी भार्या में नियोग द्वारा पुत्र उत्पन्न करा ले- कौटिलीय शास्त्र 1/17/52

पति के मरने पर देवर को दे- देवर के आभाव में इच्छा अनुसार देवे – अग्नि पुराण अध्याय 154

राजा विशाप ने स्त्री का सुख प्रजा के लिए त्याग दिया। वशिष्ट ने नियोग से मद्यंती में संतान उत्पन्न की- विष्णु पुराण 4/4/69

शंका 6 . क्या बाइबिल में नियोग का विधान हैं?

बाइबिल में नियोग

तब यहूदा ने ओनान से कहा- अपनी भाई की बीवी के पास जा और उसके साथ द्वार का धर्म करके अपने भाई के लिए संतान जन्मा- उत्पत्ति पर्व 38/8

जब कई भाई संग रहते हो और उनमें से एक निपुत्र मर जाये तो उसकी स्त्री का ब्याह पर गोत्री से न किया जाये-उसके पति का भाई उसके पास जाकर उसे अपनी स्त्री कर ले – व्यवस्था विवरण 25/5-10

यदि देवर नियोग से इंकार करे तो भावज उसके मुह पर थूके और जूते उसके पाव से उतारे- व्यवस्था 25/2

शंका 7. क्या इस्लाम में भी नियोग का विधान हैं?

इस्लाम में नियोग का विधान

सूरत कलम रुकुअ 1

वलीद घबराया और तलवार खीचकर अपनी माँ से कहा- सच बता की मैं किसका बीटा हूँ? माँ ने कहाँ-तेरा बाप नामर्द था, और तेरे चचेरे भाई की आंखे हमारी जायदाद पर लगी हुई थी, मैंने अपने गुलाम से बदफैली (नियोग ) कराई और तू पैदा हुआ- तफसीर मूज सु 59 और गजिन मतीन सूरत 45
शंका 8. क्या आधुनिक समाज में नियोग का व्यवहारिक प्रयोग होता हैं?

निस्संदेह होता हैं, आजकल नियोग को sperm donation अर्थात वीर्य दान कहा जाता हैं। यह मुख्य रूप से उन दम्पत्तियों द्वारा प्रयोग किया जाता हैं जिनमें पुरुष संतान उत्पन्न करने में असक्षम होता हैं।
चिकित्सकों द्वारा उत्तम कोटि का वीर्य महिला के शरीर में स्थापित किया जाता हैं जिससे उसे संतान हो जाये।
मुख्य रूप से भाव वही हैं केवल माध्यम अलग हैं।

नियोग के मुख्य प्रयोजन को समझे बिना व्यर्थ के आक्षेप करना मूर्खता हैं और अभी भी अगर कोई इसी प्रकार से अनर्गल प्रलाप करना चाहता हैं तो वह सबसे बड़ा मुर्ख हैं।
पाखंड खंडनी

रामपाल के चमत्कारों के दावों का पोस्ट मोर्टम

 

आँख वाले अंधों तुम्हारी बुद्धि में क्या गोबर भरा हैं जो तुम्हें यह समझ में नहीं आता कि रामपाल तुम लोगो को कितना बड़ा मुर्ख बना रहा हैं। इस विडियो में रामपाल का एक अंध भक्त जो अपने आपको रिटायर्ड नेत्र रोग विशेषज्ञ डॉक्टर हुड्डा बता रहा हैं और कह रहा हैं कि उसे ५० वर्ष कि आयु में दिल का दौरा पड़ा था जिसके कारण उसे रोहतक मेडिकल में भर्ती करवाया गया था, बेहोशी की हालत में जब काल के दूत आये तो उन दूतों से रामपाल ने उसकी रक्षा कि और उसके प्राण बचा लिए। यह सब चमत्कार उसके द्वारा रामपाल सतगुरु से नाम दान लेने के कारण हुआ।

देखो विडियो लिंक

 http://www.youtube.com/watch?v=PMQhQUJFIhs

 

उसी रामपाल के बरवाला आश्रम में कुछ महीनों पहले उसी के एक चेले कि मौत दिल के दौरे से हो गई थी। मृतक व्यक्ति ६० वर्ष का था और उसका नाम अर्जुन सिंह था और वह मध्य प्रदेश का रहने वाला था।

 

अख़बार में यक खबर इस प्रकार से छपी थी:-

 

सतलोक आश्रम में रह रहे एमपी के व्यक्ति की मौत

 

बरवाला -!- टोहाना रोड पर स्थित सतलोक आश्रम में एक बुजुर्ग की मौत हो गई। पुलिस के अनुसार उन्हें सूचना मिली थी कि आश्रम में मध्य प्रदेश के जिला अशोक नगर निवासी 60 वर्षीय अर्जुन सिंह की मौत हो गई। पुलिस ने मौके पर पहुंच कर शव को कब्जे में ले लिया। फिलहाल पुलिस ने शव को शव गृह हिसार में रखवा दिया है। आश्रम के प्रवक्ता का कहना है कि अर्जुन सिंह की मौत का कारण हार्टअटैक बताया है।

अर्जुन सिंह की रविवार सुबह तबीयत खराब हो गई थी, जिसके कारण उसे बरवाला के एक निजी अस्पताल में उपचार के लिए लाया गया, यहां से चिकित्सकों ने उसे हिसार रेफर किया था। सिविल अस्पताल हिसार ले जाते वक्त रास्ते में अर्जुन ने दम तोड़ दिया। सिटी अस्पताल के चिकित्सक के अनुसार अर्जुन को निमोनिया था व उसका ब्लड प्रेशर कम हो गया था। पुलिस ने मामले के संबंध में मृतक अर्जुन सिंह के परिजनों को फोन के माध्यम से जानकारी दे दी है।

 

देखिये लिंक में दैनिक भास्कर कि खबर 

http://www.bhaskar.com/article/MAT-HAR-OTH-c-160-385332-NOR.html

 

अब एक और पाखंड कि पोल खोलते हैं।

 

रामपाल अपनी पुस्तक ज्ञान गंगा के पृष्ठ संख्या २८६ पर अपने एक भगत सुरेश दास कि कहानी लिखता हैं उसके पुत्र को 11000 वाट के करंट कि तारों से उसका लड़का चिपक गया था। उसी समय सतगुरु रामपाल जी महाराज आकाश मार्ग से आए तथा उसके लड़के का हाथ पकड़ कर बिजली से छुड़ाकर छज्जे पर लिटा दिया।

 

करंट से अपने चेलो को बचाने वाले रामपाल कि ही आश्रम में करंट से उसी के एक चेले कि मौत कि खबर दैनिक जागरण के हिसार संस्करण में दिनांक २१ जुलाई, २०१३ को इस प्रकार से छपी हैं।

 

संत रामपाल के सतलोक आश्रम में करंट लगने से एक युवक की मौत

 

 संवाद सूत्र, बरवाला : संत रामपाल के सतलोक आश्रम में करंट लगने से एक युवक की मौत हो गई। युवक की मौत के बाद आश्रम वालों ने स्थानीय पुलिस को सूचित नहीं किया। बल्कि मृतक का शव लेकर भिवानी उसके घर पहुंच गए और उसका शव सीधे उसके घर पहुंचा दिया। मृतक के अभिभावकों ने युवक का भिवानी में पोस्टमार्टम कराया। घटना की सूचना इससे पूर्व भिवानी पुलिस को दी गई। भिवानी पुलिस ने बरवाला थाना में इसकी सूचना दी। चूंकि घटना बरवाला थाना क्षेत्र की थी तो कार्रवाई के लिए बरवाला पुलिस भिवानी पहुंची। इसके बाद भिवानी में ही उसका पोस्टमार्टम कराया। पोस्टमार्टम रिपोर्ट में युवक की मौत करंट लगने से बताई गई है। यहा घटना 19 जून रात को हुई बताई गई है।

 

भिवानी का रहने वाला था मृतक

 

बरवाला पुलिस के एएसआई भजन लाल जांच अधिकारी ने बताया मृतक सौरभ (21) पुत्र आत्मप्रकाश अविवाहित भिवानी का रहने वाला था। वो बरवाला के सतलोक आश्रम का साधक था तथा यहां आता जाता था। भिवानी पुलिस द्वारा सूचना मिलने के बाद वो जांच के लिए भिवानी गए। वहां पर पोस्टमार्टम कराया गया।

 

पोस्टमार्टम में उसकी मौत करंट लगने से हुई बताई गई है। डाक्टरी रिपोर्ट आने के बाद अभिभावक संतुष्ट हुए। मृतक सौरभ की माता आशारानी के बयान पर 173 की कार्रवाई कर शव परिजनों के हवाले कर दिया गया। जांच अधिकारी के अनुसार परिजनों ने इस संदर्भ में किसी भी प्रकार का कोई आरोप फिलहाल नही लगाया है।

 

 दस दिन के भीतर दूसरी मौत

 

10 दिन के भीतर ही सतलोक आश्रम में दूसरी मौत ने आश्रम को एक बार फिर कटघरे में खड़ा कर दिया है। 19 जून की रात को हुई भिवानी के सौरभ की मौत की स्थानीय पुलिस को सूचना नही देना व शव को सीधे उसके घर भेजने के कारण आश्रम पर सवालिया निशान लग गया है। इस संदर्भ में पुलिस का भी मानना है कि आश्रम वालों से यह पूछताछ की जाएगी कि सौरभ को आश्रम में आखिर किस प्रकार करंट लगा।

 

पहले भी लग चुके गंभीर आरोप

 

9 जून की रात को भी सतलोक आश्रम में राजस्थान के जिला जोधपुर के गांव कापरडा निवासी 95 वर्षीय जगदीश की संदिग्ध हालात में मौत हो गई थी। तब मृतक के भाई संजय ने कई प्रकार के गंभीर आरोप लगाए थे। तब भी मृतक के घर फोन पर सूचना दी गई थी। कि आश्रम में जगदीश की मौत हो गई है और उसका शव आपके गांव भेजा जा रहा है। परंतु संजय ने उन्हें रोका और शव लेने स्वंय आए थे। उस समय मृतक जगदीश के भाई संजय ने भी आरोप लगाया था कि उसका भाई बीमार नही था। उसे मानसिक रूप से बीमार बताकर उसे रस्सी से बांधने का आरोप लगाया था। परंतु संत रामपाल के भाई महेंद्र दास ने मृतक के भाई के आरोपों को गलत बताया था उन्होंने कहा था कि वो पागल था, नशा करने का आदी था।

 

सन्दर्भ:- http://www.jagran.com/haryana/hisar-10495985.html

 

एक और रामपाल ने यह बकवास लिख दिया कि वह उड़ भी सकता हैं और बिजली कि तार से चिपके हुए को भी बचा सकता हैं, दूसरी और उसके चेलो कि उसके आश्रम मेल करंट से मौत हो रही हैं।

सबसे बड़े मुर्ख उसके चेले हैं जोकि ऐसी बात पर विश्वास करते हैं।

रामपाल के आश्रम में इस प्रकार से सिलसिलेवार मौत होना एवं उसके अपने चेलो को मौत के मुँह से बचा लेने का दावा करने वाले रामपाल कि बेबसी पाठकों को क्या दर्शाती हैं?

पाखंड खंडनी रामपाल और उसके मुर्ख चेलो से पूछ रहा हैं कि

१. रामपाल से नाम दान लिए हुए, उसकी शरण में आये हुए, उसके आश्रम में रहते हुए उसके चेले कि काल के दूतों से रामपाल रक्षा क्यूँ नहीं कर पाया?

२. क्या रामपाल स्वयं अपनी रक्षा काल के दूतों से करने में समर्थ हैं?  बुढ़ापा तो उसके बालों से, उसके चेहरे कि झुरियों से स्पष्ट दीखता हैं, किसी भी दिन उसकी मृत्यु हो सकती हैं।

३. अगर रामपाल काल से अपनी रक्षा करने में समर्थ हैं तब तो उसे काल से डरने कि कोई आवश्यकता नहीं होनी चाहिये, मगर रामपाल तो इतना बड़ा डरपोक हैं कि अपने साथ अंगरक्षक रखता हैं, एक और अपने आपको कबीर परमेश्वर का अवतार बताता हैं दूसरी और डरपोक नेताओं के समान बंदूकों ने साये में रहता हैं। जो अपनी रक्षा स्वयं करने में असक्षम हैं वह तुम्हारी क्या रक्षा करेगा मूर्खों?

४. अगर रामपाल के इस दावें में दम हैं तो रामपाल सार्वजानिक रूप से उड़ कर दिखाये और बिजली कि नंगी तार को पकड़ कर दिखाये ? अगर नहीं दिखा पाया तो उसका क्या हश्र होना चाहिये पाठक स्वयं जानते हैं।

 

रामपाल के मुर्ख चेलो को यह सब पढ़कर भी अक्ल नहीं आयेगी तो कभी नहीं आ सकती।

हम अंत में ईश्वर से यही प्रार्थना करते हैं कि ईश्वर इन मूर्खों को सद्बुद्धि दे जो चमत्कार जैसे अन्धविश्वास के कारण अपने श्रेष्ठ जीवन का नाश करने पर तुले हुए हैं।

हम उनसे एक ही बात कहेगे     

रामपाल ने तुम्हे बनाया मुर्ख,  उससा ढोंगी न कोय  

अंधों अपनी आँख खोल लो, काल से बचा न कोय

 

पाखंड खंडनी

क्या सूर्य पर मनुष्य वास करते हैं?

स्वामी दयानंद के शिष्य और रामपाल के चेले कि भेंट हो गई। फटा रिकॉर्डर चलाने वाले रामपाल का चेला पुरानी घिसी पिटी कैसेट के समान स्वामी दयानंद पर आक्षेप करने का प्रयास करने लगा।

वह बोला कि स्वामी दयानन्द जी ने सत्यार्थ प्रकाश में इस प्रकार लिखा है कि सूर्य पर मनुष्य रहते हैं और वेद भी पढ़ते हैं।

स्वामी दयानंद के शिष्य ने कहा :-

 रामपाल खुद तो अनपढ़ हैं, उसके चेले उससे भी बड़े मुर्ख हैं। स्वामी दयानंद का मखौल बनाने कि मंशा से यह अज्ञानी व्यर्थ का आक्षेप लगाते हैं कि स्वामी दयानंद जी ने सूर्य पर जीवन होने कि गप्प सत्यार्थ प्रकाश में लिख दी हैं। सत्य यह हैं कि ऋषि-मुनियों कि वैज्ञानिक सोच जब अनपढ़ व्यक्ति कि समझ में जब नहीं आती तो वह ऐसा ही कहता हैं। स्वामी दयानंद के वैज्ञानिक दृष्टिकौन को वैज्ञानिक रीति से समझोगे तो ही तुम्हारी समझ में आयेगा।

दोनों के बीच प्रश्न उत्तर शैली में संवाद हुआ।

पहले यह जानो कि स्वामी दयानंद ने इस विषय में क्या लिखा हैं।

 प्र १:-  सूर्य चन्द्र और तारे क्या वस्तु हैं और उनमें मनुष्यादि सृष्टि है वा नहीं ?

 उ:-  ये सब भूगोल लोक और इसमें मनुष्यादि प्रजा भी रहती है क्योंकि ” पृथिवी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, चन्द्र, नक्षत्र और सूर्य इनका वसु नाम इसलिये है कि इन्हीं में सब पदार्थ और प्रजा वसती है और ये ही सबको बसाते हैं | जिसलिये वास के निवास करने के घर है इसलिये इनका नाम वसु है | जब पृथिवी के समान सूर्य चन्द्र और नक्षत्र वसु हैं पश्चात उनमें इसी प्रकार प्रजा के होने में क्या सन्देह ? और जैसे परमेश्वर का यह छोटा सा लोक सृष्टि से भरा हुआ है तो क्या ये सब लोक शून्य होंगे ? परमेश्वर का कोई भी काम निष्प्रयोजन नहीं होता तो क्या इतने असंख्य लोकों में मनुष्यादि सृष्टि न हो तो सफल कभी हो सकता है? इसलिये सर्वत्र मनुष्यादि सृष्टि है |”

 प्रश्न २. सूर्य क्या हैं?

 उत्तर:- सूर्य एक ऐसा गृह हैं जहाँ का तापमान कई हज़ार डिग्री हैं। सम्पूर्ण भ्रमांड में ऐसे अनगिनत सूर्य और अनगिनत गृह हैं जिनका तापमान हज़ारों डिग्री तक हैं। ऐसे न जाने कितने ग्रहों कि उत्पत्ति हो रही हैं और न जाने कितनों का विध्वंश हो रहा हैं। इसे कोई नहीं जानता।

 प्रश्न ३. क्या पृथ्वी के समान अन्य ग्रहों पर भी जीवन हैं?

 उत्तर:- वैज्ञानिकों के अनुसार पृथ्वी के समान अनगिनत ग्रहों पर जीवन होने कि सम्भवना हैं, क्यूंकि अन्य ग्रहों पर जीवन न होने का कोई भी कारण भी नहीं हैं। जिस भी गृह पर जीवन के लिए अनुकूलता होगी वहाँ पर जीवन होगा।

 प्रश्न ४ :- जिन ग्रहों पर जीवन होगा क्या वे पृथ्वी के समान होंगे अथवा उससे भिन्न होंगे?

 उत्तर:-  दोनों, कुछ गृह पृथ्वी के समान भी हो सकते हैं, कुछ पृथ्वी से भिन्न भी हो सकते हैं। वहाँ पर जीवन का होना वहाँ के वातावरण और उसमें बसने वाले प्राणियों कि अनुकूलता और उनकी शारीरिक संरचना के ऊपर निर्भर करता हैं।

 प्रश्न ५:- क्या यह सम्भव हैं कि जिस तापमान पर पृथ्वी पर जीवन हम देखते हैं उससे भिन्न तापमान पर जीवन हो सकता हैं?

 उत्तर:- ऐसा सम्भव न होने का क्या कारण हैं? हम पृथ्वी का ही उदहारण लेते हैं।

 सामान्य रूप से पृथ्वी पर मनुष्य शुन्य से १०- १५ डिग्री नीचे से ४५- ५० डिग्री ऊपर तक वास करता हैं। मगर कुछ ऐसे प्राणी भी इसी पृथ्वी पर हैं जो इनसे अधिक विषम परिस्थितियों में वास करते हैं, जहाँ पर मनुष्य का रहना सम्भव नहीं हैं। इन्हें Extremophile कहते हैं। इनके रहने के स्थान अत्यंत विषम हैं जैसे अन्टार्टिका कि बर्फ के नीचे और ज्वालामुखी के गर्भ में मनुष्य का वास करना सम्भव नहीं हैं मगर वहाँ भी ये पाये जाते हैं। जब इसी पृथ्वी ऐसे प्राणी उस स्थान पर मिल सकते हैं जो मनुष्य के रहने के लायक नहीं हैं तो फिर अन्य ग्रहों पर ऐसे मनुष्य क्यूँ नहीं मिल सकते जोकि पृथ्वी से भिन्न वातावरण वाले हैं और उन मनुष्यों कि शारीरिक रचना पृथ्वी से भिन्न होने के साथ साथ उस गृह के अनुकूल भी हैं। फिर ऐसा क्यूँ सम्भव नहीं हैं कि दूसरे ग्रहों पर ऐसे मनुष्य वास न करते हो जिनका शरीर अधिक तापमान पर रहने के अनुकूल न हो।

 प्रश्न ६:-  इससे यह कैसे सिद्ध हुआ कि सूर्य पर मनुष्य वास करते हैं?

 उत्तर:- यह मैंने पहले ही सिद्ध कर दिया था कि सूर्य उस गृह का नाम हैं जिसका तापमान पृथ्वी से कही अधिक हैं और ऐसे अनगिनत गृह हैं जिन पर ऐसे अधिक तापमान में जीवन होने कि सम्भावना हैं। फिर वहाँ रहने वाले प्राणियों कि विभिन्न शारीरिक रचना उन्हें उन ग्रहों पर वास करने के अनुकूल बनती हैं। इस तथ्य में कुछ भी अतिश्योक्ति नहीं हैं अपितु यह तो पूर्ण वैज्ञानिक सोच हैं।

 प्रश्न ७:- इससे यह कैसे सिद्ध हुआ कि सूर्य पर रहने वाले मनुष्य वेद भी पढ़ते हैं?

 उत्तर:- तुम रहे वही मुर्ख गुरु के मुर्ख चेले। वेद का अर्थ हैं “ज्ञान”। ईश्वर जिस प्रकार से मनुष्य कि उत्पत्ति करता हैं उसी प्रकार से ईश्वर मनुष्य को वेद यानि कि ज्ञान से भी परिचित करवा देता हैं। यह कैसे हो सकता हैं कि ईश्वर मनुष्य को अनेक ग्रहों पर उत्पन्न करे और ज्ञान दे केवल उनको जो पृथ्वी पर वास करते हैं? यह बस केवल तुम लोगो कि संकीर्ण सोच हैं।

 प्रश्न ७:- आपके स्वामी दयानंद तो धार्मिक पुरुष थे कोई वैज्ञानिक नहीं थे फिर उन्होंने कैसे ऐसी बात कही कि सूर्य पर लोग वास करते हैं।

 उत्तर:- स्वामी दयानंद ऋषि थे अर्थात वैज्ञानिक रूप से वेद आदि शास्त्रों के मन्त्रों पर विचार मंथन कर उनका निष्कर्ष निकालते थे। उन्होंने वसु शब्द अर्थात जहाँ पर वास किया जाये, यह अर्थ शतपथ ब्राह्मण के आधार पर किया हैं। ईश्वरकृत वेदों का सबसे बड़ा गुण यही हैं कि वे विज्ञान के अनुकूल हैं, उनमें मानव लिखित किताबों के समान गप नहीं हैं कि सम्पूर्ण परमेश्वर उड़ते हुए आये और करंट कि तार से अपने भगत को बचा लिया आदि।

रामपाल का चेले से अब उत्तर नहीं बना तो चुप हो गया।

बोलो वेदा वाले स्वामी दयानंद कि- जय हो। पाखंड खंडनी

वेद और रामपाल

 

वेद मन्त्रों के गुढ़ अर्थ करने की योग्यता तो दूर की बात हैं पाखंड गुरु रामपाल संस्कृत के वेद मन्त्रों तक को तो अशुद्ध पढ़ता हैं। सभी जानते हैं की वेद ईश्वर की देन हैं। अपने आपको परमात्मा कहने वाला रामपाल वेद मन्त्रों के अर्थों को तोड़ मरोड़ कर न केवल अपना ही परिहास करवा रहा हैं अपितु अन्धविश्वास को बढ़ावा दे रहा हैं।

कबीर दास समाज सुधारक थे।

वह नदी किनारे नवजात बालक के रूप में पाए गये थे और किवदंती के अनुसार एक विधवा के पैदा हुए थे जिसने भय के कारण उन्हें नदी में बहा दिया था। उनकी मृत्यु पर भी एक और ऊट पटांग बात कबीर के चेलो ने उड़ा दी की उनका मृत शरीर फूलों में परिवर्तित हो गया था।

गुरु तो गुड़ थे चेलो ने शक्कर बना दी। पहले कबीर का शरीर गायब कर दिया , फिर कह दिया की कबीर सशरीर सतलोक को गये फिर अपने आपको रामपाल जैसे पाखंडी कबीर का अवतार, साकार परमेश्वर और पता नहीं क्या क्या कहने लग गये हैं। यह मुर्ख बनने बनाने की प्रक्रिया अभी भी जारी हैं?

यह कुछ कुछ ऐसा हैं की जैसे एक अँधा दूसरे अंधे को मार्ग दिखा रहा हैं।

वेदों में परमेश्वर को निराकार, अजन्मा, अकायम, अविनाशी, सर्वव्यापक कहा गया हैं।

रामपाल जो अपने आपको कबीर परमेश्वर का अवतार वाला कहता हैं इससे न केवल वह वेदों के ईश्वर के अजन्मा होने के सिद्धांत का विरोध करता हैं अपितु निराकार के स्थान पर साकार, सर्वव्यापक के स्थान पर एकदेशी अर्थात एक ही स्थान पर स्थित रहने वाला, अकायम के स्थान पर शरीरधारी , अविनाशी के स्थान पर विनाशी सिद्ध होता हैं।

वेदों के कुछ मन्त्रों के अर्थ को तोड़ मरोड़ देने दे रामपाल एक प्रकार का छल ही कर रहा हैं। इतना ही नहीं गीता के भी मनमाने अर्थ निकालकर रामपाल जो अपने आपको विद्वान सिद्ध करने पर लगा हुआ हैं। अनपढ़ और अज्ञानी जनता को मुर्ख बनाना बहुत आसान हैं परन्तु शिक्षित, स्वाध्यायशील और ज्ञानी जन उसके अर्थों की न केवल उचित समीक्षा करके उसके दावे की पोल आसानी से खोल देते हैं अपितु वेदों के सर्वमान्य एवं सत्य अर्थ का बोध सामान्य जनता को करवा देते हैं।

 

वेदों से ईश्वर के अजन्मा, सर्वव्यापक, अजर, निराकार होने के प्रमाण।

ईश्वर के अजन्मा होने के प्रमाण

१. न जन्म लेने वाला (अजन्मा) परमेश्वर न टूटने वाले विचारों से पृथ्वी को धारण करता हैं। ऋग्वेद १/६७/३

२. एकपात अजन्मा परमेश्वर हमारे लिए कल्याणकारी होवे। ऋग्वेद ७/३५/१३

३. अपने स्वरुप से उत्पन्न न होने वाला अजन्मा परमेश्वर गर्भस्थ जीवात्मा और सब के ह्रदय में विचरता हैं। यजुर्वेद ३१/१९

४. परमात्मा सर्वशक्तिमान, स्थूल, सूक्षम तथा कारण शरीर से रहित, छिद्र रहित, नाड़ी आदि के साथ सम्बन्ध रूप बंधन से रहित, शुद्ध, अविद्यादि दोषों से रहित, पाप से रहित सब तरफ से व्याप्त हैं। जो कवि तथा सब जीवों की मनोवृतिओं को जानने वाला और दुष्ट पापियों का तिरस्कार करने वाला हैं। अनादी स्वरुप जिसके संयोग से उत्पत्ति वियोग से विनाश, माता-पिता गर्भवास जन्म वृद्धि और मरण नहीं होते वह परमात्मा अपने सनातन प्रजा (जीवों) के लिए यथार्थ भाव से वेद द्वारा सब पदार्थों को बनाता हैं।- यजुर्वेद ४०/८

ईश्वर सर्वव्यापक हैं

१. अंत रहित ब्रह्मा सर्वत्र फैला हुआ हैं। अथर्ववेद १०/८/१२

२. धूलोक और पृथ्वीलोक जिसकी (ईश्वर की) व्यापकता नहीं पाते। ऋग्वेद १/५२/१४

३. हे प्रकाशमय देव! आप और से सबको देख रहे हैं। सब आपके सामने हैं। कोई भी आपके पीछे हैं देव आप सर्वत्र व्यापक हैं। ऋग्वेद १/९७/६

४. वह ब्रह्मा मूर्खों की दृष्टी में चलायमान होता हैं। परन्तु अपने स्वरुप से (व्यापक होने के कारण) चलायमान नहीं होता हैं। वह व्यापकता के कारण देश काल की दूरी से रहित होते हुए भी अज्ञान की दूरिवश दूर हैं और अज्ञान रहितों के समीप हैं। वह इस सब जगत वा जीवों के अन्दर और वही इस सब से बाहर भी विद्यमान हैं। यजुर्वेद ४०/५

५. सर्व उत्पादक परमात्मा पीछे की ओर और वही परमेश्वर आगे, वही प्रभु ऊपर, और वही सर्वप्रेरक नीचे भी हैं। वह सर्वव्यापक, सबको उत्पन्न करने वाला हमें इष्ट पदार्थ देवे और वही हमको दीर्घ जीवन देवे।ऋग्वेद १०/२६/१४

६. जो रूद्र रूप परमात्मा अग्नि में हैं जो जलों ओषधियों तथा तालाबों के अन्दर अपनी व्यापकता से प्रविष्ट हैं।- अथर्ववेद ७/८७/१

ईश्वर अजर (जिन्हें बुढ़ापा नहीं आता) हैं

नोट:- रामपाल और कबीर दोनों के बाल सफेद हैं अर्थात साक्षात् परमेश्वर के तो नहीं पर साक्षात् बुढ़ापे के दर्शन अवश्य हो रहे हैं।

१. हे अजर परमात्मा, आपके रक्षणों के द्वारा मन की कामना प्राप्त करें। ऋग्वेद ६/५/७

२. जो जरा रहित (अजर) सर्व ऐश्वर्य संपन्न भगवान को धारण करता हैं वह शीघ्र ही अत्यन्त बुद्धि को प्राप्त करता हैं। ऋग्वेद ६/१ ९/२

३. धीर ,अजर, अमर परमात्मा को जनता हुआ पुरुष मृत्यु या विपदा से नहीं घबराता हैं।- अथर्ववेद १०/८/४४

४. हम उसी महान श्रेष्ठ ज्ञानी अत्यंत उत्तम विचार शाली अजर परमात्मा की विशेष रूप से प्रार्थना करें।- ऋग्वेद ६/४९/१०

ईश्वर निराकार हैं

१. परमात्मा सर्वशक्तिमान, स्थूल, सूक्षम तथा कारण शरीर से रहित, छिद्र रहित, नाड़ी आदि के साथ सम्बन्ध रूप बंधन से रहित, शुद्ध, अविद्यादि दोषों से रहित, पाप से रहित सब तरफ से व्याप्त हैं। जो कवि तथा सब जीवों की मनोवृतिओं को जानने वाला और दुष्ट पापियों का तिरस्कार करने वाला हैं। अनादी स्वरुप जिसके संयोग से उत्पत्ति वियोग से विनाश, माता-पिता गर्भवास जन्म वृद्धि और मरण नहीं होते वह परमात्मा अपने सनातन प्रजा (जीवों) के लिए यथार्थ भाव से वेद द्वारा सब पदार्थों को बनाता हैं।-यजुर्वेद ४०/८

२. परमेश्वर की प्रतिमा, परिमाण उसके तुल्य अवधिका साधन प्रतिकृति आकृति नहीं हैं अर्थात परमेश्वर निराकार हैं। यजुर्वेद ३२/३

३. अखिल अखिल ऐशवर्य संपन्न प्रभु पाँव आदि से रहित निराकार हैं। ऋग्वेद ८/६९/११

४. ईश्वर सबमें हैं और सबसे पृथक हैं। (ऐसा गुण तो केवल निराकार में ही हो सकता हैं) यजुर्वेद ३१/१

५. जो परमात्मा प्राणियों को सब और से प्राप्त होकर, पृथ्वी आदि लोकों को सब ओर से व्याप्त होकर तथा ऊपर निचे सारी पूर्व आदि दिशाओं को व्याप्त होकर, सत्य के स्वरुप को सन्मुखता से सम्यक प्रवेश करता हैं, उसको हम कल्प के आदि में उत्पन्न हुई वेद वाणी को जान कर अपने शुद्ध अन्तकरण से प्राप्त करें। (ऐसा गुण तो केवल निराकार में ही हो सकता हैं) यजुर्वेद ३२/११

इनके अलावा और भी अनेक मंत्र से वेदों में ईश्वर का अजन्मा, निराकार, सर्वव्यापक, अजर आदि सिद्ध होता हैं।

वेदों का अर्थ करने के लिए संस्कृत व्याकरण के नियमों का पालन करना पड़ता हैं। कवि शब्द का अर्थ कबीर किस आधार पर किया गया हैं रामपाल इसका प्रमाण दे क्यूंकि संस्कृत व्याकरण के आधार पर कवि शब्द का अर्थ कबीर किसी भी प्रकार से नहीं बनता और वेद सार्वकालिक ज्ञान हैं जोकि सृष्टी के आरंभ में दिया गया था इसलिए वे न तो इतिहास की पुस्तक हैं और न ही किसी व्यक्ति विशेष के जीवन चरित्र को बखान करने की पुस्तक हैं।

 

रामपाल वेदों के मन्त्रों का अपने आपको साकार कबीर का अवतार पूर्ण परमेश्वर सिद्ध करने के लिए निकलता हैं। रामपाल द्वारा इस मंत्र पर लिखे गये वेद मंत्र यजुर्वेद ३२/११ के भाषाभाष्य की समीक्षा

 [यहाँ पर कविर्मनीषी शब्द से रामपाल कबीर साकार परमेश्वर को दिखाता हैं जबकि इसी मंत्र में ईश्वर को शुक्रम (सर्वशक्तिमान), अकायम (स्थूल, सूक्षम और कारण शरीर रहित), अवर्णम (छिद्र रहित और नहीं छेद सकने योग्य), अस्नाविरम (नाड़ी आदि बंधन से रहित), शुद्धम (अविद्या आदि दोषों से रहित), परिअगात (सब और से व्याप्त), स्वयंभू (जिसके माता-पिता, गर्भवास, जन्म, वृद्धि और मरण आदि नहीं होते), शाश्र्वतिभ्य (उत्पत्ति और विनाश रहित) कहा गया हैं।

एक होता हैं मुर्ख होना और एक होता हैं मुर्ख बनाना, रामपाल तो धूर्त हैं पर उसके चेले कितने बड़े मुर्ख हैं और रामपाल द्वारा मुर्ख बनाये जा रहे हैं की वेद मंत्र के एक शब्द कविर्मनीषी से वेदों में कबीर साकार परमेश्वर सिद्ध करने वाला रामपाल की धूर्तता के शिकार हो गये। उनकी क्या आँखें फूटी पड़ी हैं जो वे यह भी नहीं देख पा रहे की इसी मंत्र में ईश्वर के उन गुणों का बखान हैं जो केवल निराकार, सर्वव्यापक, सर्वशक्तिमान ईश्वर के हो सकते हैं।

उदहारण के लिए कबीर के जीवन को ही ले लो रामपाल अपने आपको कबीर का अवतार बताता हैं (सन्दर्भ पुस्तक-धरती पर अवतार) और कबीर को पूर्ण परमेश्वर बताता हैं।

उसी कबीर को हम नारी जाति को कोसता हुआ पाते हैं, उसी के चेले कमाल/कमली उसका कहना नहीं मानते। इब्राहीम लोधी के भय से कबीर को बनारस छोड़कर मगहर जाना पड़ा था। अपनी पत्नी/शिष्या लोही से कबीर को असंतुष्ट पाते हैं।

यह कैसा परमेश्वर जो साधारण मनुष्य के समान अशक्त दिख कर रहा हैं?

कबीर का जन्म भी हुआ, कबीर की मृत्यु भी हुई थी। चेलो ने बाद में कहानी बना दी की कबीर दास दास का मृत शरीर फूल बन गया। यह तो चेलो की आदत होती हैं की अपने गुरु का महिमा मंडन करने के लिए वे उसे चमत्कारी पुरुष बना देते हैं।

पर रामपाल तो अव्वल दर्जे का कपटी हैं वह अपने चमत्कारों की कहानियाँ अपने हाथ से छाप कर बाँट रहा हैं।

अगर इतना ही बड़ा चमत्कारी हैं तो हाल ही में उत्तराखंड में हुए भूस्खलन को क्यूँ नहीं रोक लिया, बिहार में स्कूल के बच्चों को खाने में मिले जहर से क्यूँ नहीं बचा लिया? रामपाल के आश्रम में ही दो व्यक्ति मर चुके हैं जो रामपाल के चेले थे और काल से रक्षा के लिए रामपाल के चेले बने थे। एक की मृत्यु करंट लगने से और दुसरे की दिल का दोरा पड़ने से हुई हैं ऐसा रामपाल के आश्रम द्वारा अधिकारिक बयान दिया गया हैं जबकि रामपाल की अपनी ही पुस्तकों और अख़बार में दिए गये विज्ञापन में रामपाल करंट से और दिल के रोग से अपने चेलो के रोग ठीक होना का दावा करता हैं।

वेदों में वर्णित ईश्वर के अजन्मा, अजर, सर्वव्यापक, निराकार सिद्धांत के आगे बेबस रामपाल की पोल कितनी आसानी से खुल रही हैं मगर खेद हैं मुर्ख चेले अभी भी नहीं समझ रहे की सत्य-असत्य में भेद क्या हैं।

पाखंड खंडनी

स्वामी दयानंद, आर्य समाज और भारतीय स्वाधीनता संग्राम

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रामपाल नाम का एक पाखंडी कुछ मूर्खों पर प्रभाव जमाने के लिए अभी तक जूठ का सहारा ले रहा था, अब उससे आगे बढ़ कर अभद्र भाषा में स्वामी दयानंद पर टिपण्णी कर अपने मानसिक दिवालियापन का परिचय भी देता रहता हैं।

रामपाल पाखंडी ने स्वामी दयानंद पर यह आक्षेप लगाया हैं की सन १८५७ के समय स्वामी दयानंद के किसी भी जीवन चरित में ३ वर्ष तक का कोई विवरण नहीं मिलता।ऐसा लगता हैं की अंग्रेजों के डर से स्वामी दयानंद जंगलों में छुप गये थे।

स्वामी दयानंद ने अपनी स्वलिखित जीवन चरित्र में १८५७ के पश्चात के तीन वर्षों का कोई उल्लेख नहीं किया इसके कई कारण हैं।

१. स्वामी जी उस समय १८५७ के स्वाधीनता संग्राम में गुप्त कार्य कर रहे थे इसलिए उन्होंने उसमें भाग लेने का किसी भी प्रकार का कोई विवरण नहीं दिया।

२. स्वामी दयानंद अवधूत अवस्था में योगविद्या में लीन,वेदादि के पठन पाठन करते हुए देश, धर्म और जाति के कल्याण के लिये चिंतन-मनन की अवस्था में थे।

परन्तु रामपाल जैसे पाखंडी का यह कहना की स्वामी दयानंद अंग्रेजों से डरते जंगलों में छुप रहे थे न केवल असभ्यता की निशानी हैं अपितु मुर्खता की पराकाष्टा भी हैं।

स्वामी दयानंद वो क्रन्तिकारी सन्यासी थे जिन्होंने १८५७ के पश्चात उस काल में जब अंग्रेजों ने भारतवासियों की आत्मा को बर्बर तरीके से कुचला था जिससे वे अंग्रेजों के विरुद्ध दोबारा से संघर्ष करने का विचार स्वपन में भी न ले, उस काल में सर्वप्रथम स्वदेशी राज्य के लिए उद्घोष किया था। भारत के स्वाधीनता संग्राम में ८०% क्रांतिकारी आर्यसमाज की पृष्ठ भूमि से थे।

कांग्रेस के इतिहास में पट्टाभि सितारामैया ने लिखा हैं

The Aryasamaj movement which owned its birth to the great inspiration of Swami Dayananda Saraswati was aggressive in its patriotic zeal and holding fast to the cult of the infallibility of the vedas and the superiority of the Vedic culture was at the same time not inimical to broad social reform. It thus developed a virile manhood in the nation, which was the synthesis of what was best in its heredity, with what is best in its environment. It fought some of the prevailing social evils and religious superstitions in Hinduism.

Indian National Congress (1885-1935) pp.20-21

स्वामी दयानंद के लेखन द्वारा जनजागरण

स्वामी दयानंद द्वारा राष्ट्र क्रांति के आवाहन के लिए अपने लेखन द्वारा जनजागरण किया गया था जिससे अपूर्ण हलचल उत्पन्न हुई और देश वासियों में चेतना उत्पन्न हुई जिससे भारत देश को स्वतंत्रता के सूर्य के दर्शन हुए थे।

अमर ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश(द्वितीय संस्करण) के प्रमाण

१. स्वामी दयानंद द्वारा स्वदेशी राज्य को विदेशी राज्य से उत्तम बताना

कोई कितना ही करे, परन्तु जो स्वदेशी राज्य होता हैं, वह सर्वोपरि उत्तम होता हैं अथवा मत-मतान्तर के आग्रह रहित , अपने और पराये का पक्षपात शून्य , प्रजा पर माता-पिता के समान कृपा , न्याय और दया के साथ विदेशियों का राज्य भी पूर्ण सुखदायी नहीं हैं- ८ वां समुल्लास

२. स्वामी दयानंद द्वारा विदेशी राज होने के कारण बताना

विदेशियों के आर्यावर्त में राजा होने के कारण आपस की फूट , मतभेद, ब्रहमचर्य का सेवन न करना, विद्या न पढ़ना-पढ़ाना, बाल्यावस्था में अस्वयंवर विवाह, विषयासक्ति, मिथ्या भाषण आदि कुलक्षण, वेद विद्या का अप्रचार आदि कर्म हैं, जब आपस में भाई-भाई लड़ते हैं, तभी तीसरा विदेशी आकर पञ्च बन बैठता हैं– १० वां समुल्लास

३. स्वामी जी द्वारा बाघेर लोगों द्वारा अंग्रेजों से किये गये संघर्ष की प्रशंसा करना

जब सम्वत १९१४ के वर्ष में तोपों से मंदिर, मूर्तियाँ अंग्रेजों ने उड़ा दी थी तब मूर्ति कहाँ गई थी? प्रत्युत बाघेर लोगों ने जितनी वीरता दिखाई और लड़े, शत्रुओं को मारा परन्तु मूर्ति एक मक्खी की टांग भी न तोड़ सकी। जो श्री कृष्ण के सदृश कोई होता तो उनके धुर्रे उड़ा देता और ये भागते फिरते- ११ वां समुल्लास

४. स्वामी दयानंद द्वारा अंग्रेजों की मनोवृति का वर्णन

देखो अपने देश के बने हुए जूतों को आफिस और कचहरी जाने देते हैं , इस देशी जूते को नहीं। इतने में ही समझ लो की अपने देश के बने हुए जूतों का भी कितना मान-प्रतिष्ठा करते हैं। उतना भी अन्य देशस्थ मनुष्यों का नहीं करते।११ वां समुल्लास

५. स्वामी दयानंद द्वारा अंग्रेज भक्त ब्रहम समाजियों की कठोर भर्त्सना

इन लोगों में स्वदेश भक्ति बहुत न्यून हैं। ईसाईयों के आचरण बहुत से लिए हैं। अपने देश की प्रशंसा व पूर्वजों की बड़ाई करनी तो दूर रही, उसके बदले भरपेट निंदा करते हैं। व्याख्यानों में ईसाई और अंग्रेजों की प्रशंसा भरपेट करते हैं। ब्रह्मादि महर्षियों का नाम भी नहीं लेते। ब्रह्मा से लेकर अर्य वर्त में बहुत से विद्वान हो गये हैं, उनकी प्रशंसा न करके यूरोपियन की ही स्तुति में उतर पड़ना पक्षपात और खुशामद के बिना क्या कहा जाये। ११वां सम्मुलास

६. सत्यार्थ प्रकाश के ११ वें समुल्लास के अंत में आर्य राजाओं की वंशावली देकर स्वामी दयानंद ने प्राचीन भारत में गौरव, महिमा और समृद्धि का वर्णन कर भारतियों के मन में स्वतंत्रता, स्वाभिमान और गौरव प्राप्ति की दिशा में प्रखर चिंतन की और प्रेरित किया था

 ७.  हम प्रजापति अर्थात परमेश्वर की प्रजा और परमात्मा हमारा राजा हैं, हम उसके किंकर भृत्यवत हैं, वह कृपा करके अपनी दृष्टी में हमको राज्याधिकारी करे और हमारे हाथ से अपने सत्य न्याय की प्रवृति करावे। सत्यार्थ प्रकाश

सत्यार्थ प्रकाश-प्रथम संस्करण

१. एक तो यह बात की नोन (नमक) और पोन रोटी (भोजन) में जो कर लिया जाता हैं, मुझको अच्छा मालूम नहीं होता, क्यूंकि नोन बिना दरिद्र का भी निर्वाह नहीं, किन्तु सबको नोन आवश्यक होता हैं, और वे मेहनत-मजदूरी से जैसे-तैसे निर्वाह करते हैं उनके ऊपर भी यह नोन कर (कर) दण्डतुल्य रहता हैं, इससे दरिद्रों को क्लेश पहुँचता हैं। अत: कर (टैक्स) लवणादिकों के ऊपर न चाहिए, पौन रोटी से भी गरीबों को बहुत क्लेश होता हैं, क्यूंकि गरीब लोग कहीं से घास छेदन करके ले जायें व लकड़ी का भार (तो) उनके ऊपर कोड़ियों के लगने से उनको अवश्य क्लेश होता होगा, इससे पोन रोटी का जो कर स्थापन करना हैं, सो भी हमारी समझ से अच्छा नहीं- पृष्ठ ३८४-३८५

सरकार कागद (कागज) को बेचती हैं और बहुत सा कागजों पर धन बढ़ा दिया हैं, इससे गरीब लोगों को बहुत कलेश पहुँचता हैं, सो यह बात राजा को करनी उचित नहीं, क्यूंकि इसके होने से बहुत गरीब लोग दुःख पाकर बैठे रहते हैं, कचहरी में बिना धन के कुछ बात नहीं होती। इससे कागजों के ऊपर जो बहुत धन लगाया हैं, सो मुझको अच्छा मालूम नहीं देता। पृष्ठ ३८७

वेदों में स्वतंत्रता प्राप्ति का सन्देश

१. स्वामी दयानंद जी यजुर्वेद ३८/ १४ के भाष्य में लिखते हैं-

अखंड चक्रवर्ती राज्य के लिए, शौर्य , निति , विनय, पराक्रम और बलादि उत्तम गुण युक्त कृपा से हम लोगों को यथावत पुष्टकर, अन्य देशवासी राजा हमारें देश में कभी न हो तथा लोग कभीं न हों।

स्वामी दयानंद द्वारा रचित आर्याभिविनय पुस्तक के प्रमाण

१. हे न्यायकारिन! जो कोई हम धार्मिकों से शत्रुता करता हैं, उसको आप भस्मी-भुत करें और विद्या, शौर्य, धैर्य, बल, पराक्रम, चातुर्य, विधि धन, ऐश्वर्य, विनय, साम्राज्य, सम्मति, सम्प्रीति तथा स्वदेश सुख सम्पादन आदि गुणों से युक्त करके हमको सब देह धारियों में उत्तम बनायें और सबसे अधिक आनंद भागी करने, सब देशों में इच्छानुकूल विचरने और आरोग्य देह, शुद्ध मानस बल तथा विज्ञान आदि की प्राप्ति के लिए हमको सब विद्वानों के मध्य प्रतिष्ठा युक्त करें। १-१६

२. हे महा धनेश्वर! हमारे शत्रुओं के बल, पराकर्म को(आप) सर्वथा नष्ट करें। आपकी करुणा से हमारा राज्य और धन सदा वृद्धि को प्राप्त हो। १-४३

परोपकारिणी सभा के स्वीकार नामें में स्वामी दयानंद ने यह लिखा हैं की

जहाँ तक हो सके न्याय प्राप्ति के लिए सरकारी न्यायालय का द्वार न खट खटाया जाये।

स्वामी जी के ऐसे लिखने के पीछे सत्यार्थ प्रकाश में उन्हीं द्वारा लिखे गये इस वाक्य से सिद्ध होता हैं

अनुमान होता हैं की इसलिए ईसाई लोग ईसाईयों का बहुत पक्षपात कर किसी गोरे (अंग्रेज) ने काले (भारतीय )को मार दिया हो, तो भी बहुधा पक्ष पात से निरपराधी कर छोड़ देते हैं। १३वां समुल्लास

इस प्रकार से स्वामी दयानंद के लेखन से अनेक अन्य उदहारण दिए जा सकते हैं जो स्वामी दयानंद की अंग्रेजों से भारत को स्वतंत्र करने के लिए आवाहन करने का सशक्त प्रमाण हैं। इन्हीं से प्रेरणा पाकर लाखों भारतवासियों ने अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्ष किया, हजारों ने अँगरेज़ सरकार की जेलों की यात्रा करी, हजारों ने फाँसी का फन्दा चूम कर अपने प्राणों को जन्म भूमि पर न्योछावर कर दिया।

रामपाल जैसे मूर्ख स्वामी दयानंद जैसे राष्ट्र क्रांति के अग्रदूत के लिए असभ्य भाषा का प्रयोग कर न केवल अपने आपको मूर्ख सिद्ध कर रहे हैं अपितु अपने गलत उद्देश्यों की पूर्ति के लिए अपने चेलों को भी भ्रमित करके उन्हें मुर्ख बना रहे हैं। परन्तु सत्य सूर्य के समान होता हैं जी कुछ काल के लिए बादलों में छुप तो सकता हैं मगर जब वह फिर से चमकता हैं तो पहले से भी तीव्र रूप में चमकता हैं।

पाखंड खंडनी

स्वामी दयानंद के विषय में भ्रान्ति और उसका निवारण

shiv bahkti and bhang

स्वामी दयानंद के विषय में भांग खाने को लेकर एक भ्रान्ति का प्रचार पाखंड गुरु रामपाल और उसके अंधे चेले कर रहे हैं।
विडंबना यह हैं की वे न तो सत्य जानते हैं और न ही जानना चाहते हैं। रामपाल और उसके चेलो को देखकर ऐसा लगता हैं जैसे एक अँधा दूसरे अंधों को रास्ता दिखा रहा हैं।
स्वामी दयानंद का जन्म शैव परिवार में हुआ था। उनके यहाँ पर शिव भगवान की पूजा पीढ़ियों से की जाती थी। पौराणिक समाज में शिव भक्ति में विशेष रूप से सोमवार और शिवरात्रि के दिन भांग, धतुरा, बिल्वपत्र आदि से पूजा तो आज भी प्रचलित हैं।
उनके अलावा नागा साधू समाज और सूफी समाज में भी यह मान्यता हैं की भांग के नशे में चूर होना ईश्वर भक्ति की चरम सीमा तक जाने के समान हैं।
वैसे कबीर को भी सूफी समाज का अंग माना जाता हैं।
स्वामी दयानंद ईश्वर की खोज में गृह त्याग कर निकले थे। उनकी अवस्था एक जिज्ञासु के समान थी जो सत्य की खोज कर रहा था। उनके जीवन चरित को पढ़ने से इस बात का ज्ञात भली भान्ति हो जाता हैं की वे किस प्रकार साधुओं का ज्ञान प्राप्ति के लिए संसर्ग करते थे। ऐसे में शैव साधुओं द्वारा ईश्वर प्राप्ति के लिए चित को एकाग्र करने का लिए भांग का ग्रहण करना बताया जाना किसी भी प्रकार की अतिश्योक्ति नहीं हैं।
कुल से शैव और शैव साधुओं का कहना मान कर स्वामी दयानंद ने अगर भांग को अल्पकाल के लिए ग्रहण किया भी तो उसका उद्देश्य नशा करना नहीं था।
परन्तु बुद्धिमान उसको कहते हैं जो सत्य के ग्रहण और असत्य के त्याग के लिए सदा तत्पर रहता हो। स्वामी दयानंद का तो पूरा जीवन इसी सिद्धांत का प्रत्यक्ष हैं।
अपने स्वलिखित जीवन चरित्र के पृष्ठ १५ पर स्वामी दयानंद स्पष्ट लिखते हैं
“तत्पश्चात जिस वस्तु की खोज में था उसके अर्थ आगे को चल दिया। और असुज सुदी २ सं १९१३ को दुर्गा कुण्ड के मंदिर पर जो चांडालगढ़ में हैं, पहुँचा। वहाँ दस दिन व्यतीत किये यहाँ मैंने चावल खाने सर्वथा छोड़ दिये और केवल दूध पर निर्वाह करके दिन रात योग विद्या अध्ययन और अभ्यास में दिन रात तत्पर रहा। दौर्भाग्यवश वहाँ मुझे एक बड़ा दोष लग गया, अर्थात भांग पीने का स्वाभाव हो गया”
पाठक ध्यान दे स्वामी दयानंद यहाँ पर क्या कह रहे हैं “वहाँ मुझे एक बड़ा दोष लग गया, अर्थात भांग पीने का स्वाभाव हो गया”
स्वामी जी यहाँ स्पष्ट रूप से कह रहे हैं की मुझे भांग पीने का दोष लग गया था।
यह स्पष्ट होता हैं की स्वामी जी ने न केवल भांग पीने को गलत माना हैं अपितु अल्पकाल के पश्चात ज्ञान होने पर उन्होंने इसे त्याग भी दिया था। इसका प्रमाण पंडित लेखराम लिखित जीवन चरित्र में स्पष्ट रूप से इस प्रकार मिलता हैं।
( श्री कन्हैयालाल इन्जीनियर , रुड़की , से प्रशनोत्तर — २५ जुलाई , १८७८ )

” क्या मद की अवस्था में ईश्वर – चिन्तन हो सकता है ? ”

स्वामी जी जिन दिनों रुड़की में थे तो लाला कन्हैयालाल साहब इन्जीनियर ने प्रश्न किया कि मद ( नशा ) की अवस्था में चित्त एकाग्र हो जाता है और जिस विषय की ओर चित्त आकृष्ट होता है उसी में डूबा रहता है । ” इसलिए इस अवस्था में जैसा अच्छा ईश्वर का ध्यान हो सकता है वैसा अन्य अवस्था में नहीं । ”
स्वामी जी ने कहा कि मद का नियम ऐसा ही है जैसा कि आप वर्णन करते हैं कि जिस वस्तु का ध्यान चित्त में होता है मनुष्य उसी में डूबा रहता है परन्तु वस्तुओं की वास्तविकता का ठीक ध्यान अनुकूलता से हुआ करता है । जब हम एक वस्तु का ध्यान करते हैं और उसका सम्बन्ध दूसरी वस्तुओं के साथ करके देखते हैं और उस वस्तु और अन्य वस्तुओं में सम्पर्क स्थापित करके देखते हैं तब उस वस्तु का ठीक ध्यान चित्त में प्रकट होता है और अन्यथा उस वस्तु का ध्यान वास्तविकता के विरुद्ध प्रकट हुआ करता है और गुणी और गुण की अपेक्षा नहीं रहती ।
” इसलिए मद की अवस्था में ईश्वर का ध्यान झूठा और अवगुणों के साथ होता है ”

प्रश्नकर्त्ता को यह उत्तर बहुत अच्छा लगा और पूर्ण सन्तोष हो गया ।

ला . साहब स्वयं मद्य नहीं पीते थे प्रत्युत उस से घृणा करते थे परन्तु लोगों की वर्तमान शंका को स्वयं उपस्थित करके उत्तर माँगा था ।
( पं . लेखराम कृत जीवनी , पृष्ठ ३९५ )

( भिन्न संस्करणों में पृष्ठ संख्या भिन्न हो सकती है , इसलिए पृष्ठ संख्या पर विवाद न करें )

मुर्ख रामपाल अपने आपको तत्वदर्शी कहता हैं और पंडित लेखराम लिखित स्वामी दयानंद के जीवन चरित के उस अंश को अपने चेलो को मुर्ख बनाने के लिए दिखाता हैं जब स्वामी जी शैव साधू के समान जीवन व्यतीत कर रहे थे और भांग का ग्रहण करते थे।
बन्धुओं , यहाँ प्रश्न यह है कि , क्या एक नशेड़ी / भंगेड़ी ऐसा उत्तर दे सकता है ?
रामपाल अगर इतना ही तत्वदर्शी हैं तो उपरलिखित भांग आदि मादक पदार्थों के विषय में स्वामी जी की धारणा को अपने चेलों को क्यूँ नहीं दिखाता। इस प्रकार के व्यवहार को धूर्तता नहीं कहेगे तो क्या कहेगे।
प्रस्तुत वार्त्तांश उसी जीवनी से है जिस जीवनी का हवाला देकर रामपाल एंड मण्डली , स्वामी दयानन्द जी को नशेड़ी घोषित करने का कुप्रयास कर रहे हैं ।
सत्यार्थ प्रकाश में भी स्वामी दयानंद स्पष्ट रूप से मादक पदार्थ के ग्रहण करने की मनाही करते हैं:-
१. सत्यार्थ प्रकाश- दशम समुल्लास पृष्ठ २१९- ७१ संस्करण, जनवरी २००९ प्रकाशक- आर्ष साहित्य प्रचार ट्रस्ट, दिल्ली
मनुस्मृति का सन्दर्भ देकर स्वामी दयानंद यहाँ पर किसी भी प्रकार के नशे से बुद्धि का नाश होना मानते हैं।
वर्जयेन्मधु मानसं च – मनु
जैसे अनेक प्रकार के मद्य, गांजा, भांग, अफीम आदि –
बुद्धिं लुम्पति यद् द्रव्यम मद्कारी तदुच्यते।।
जो-जो बुद्धि का नाश करने वाले पदार्थ हैं उनका सेवन कभी न करें।

२. सत्यार्थ प्रकाश- एकादश समुल्लास पृष्ठ २८१ – २८२संस्करण, जनवरी २००९ प्रकाशक- आर्ष साहित्य प्रचार ट्रस्ट, दिल्ली
स्वामी दयानंद भांग आदि मादक पदार्थ के ग्रहण करने वाले को कुपात्र कहते हैं।
(प्रश्न)- कुपात्र और सुपात्र का लक्षण क्या हैं?
(उत्तर) जो छली, कपटी, स्वार्थी, विषयी, काम, क्रोध, लोभ, मोह से युक्त, परहानी करने वाले लम्पति, मिथ्यावादी, अविद्वान, कुसंगी, आलसी : जो कोई दाता हो उसके पास बारम्बार मांगना, धरना देना, न किये पश्चात भी हठता से मांगते ही जाना, संतोष न होना, जो न दे उसकी निंदा करना, शाप और गाली प्रदानादी देना। अनेक वार जो सेवा करे और एक वार न करे तो उसका शत्रु बन जाना, ऊपर से साधु का वेश बना लोगों को बहकाकर ठगना और अपने पास पदार्थ हो तो भी मेरे पास कुछ भी नहीं हैं कहना, सब को फुसला फुसलू कर स्वार्थ सिद्ध करना, रात दिन भीख मांगने ही में प्रवृत रहना, निमंत्रण दिए पर यथेष्ट भांग आदि मादक द्रव्य खा पीकर बहुत सा पराया पदार्थ खाना, पुन: उन्मत होकर प्रमादी होना, सत्य-मार्ग का विरोध और जूठ-मार्ग में अपने प्रयोजनार्थ चलना, वैसे ही अपने चेलों को केवल अपनी सेवा करने का उपदेश करना, अन्य योग्य पुरुषों की सेवा करने का नहीं, सद विद्या आदि प्रवृति के विरोधी, जगत के व्यवहार अर्थात स्त्री, पुरुष, माता, पिता, संतान, राजा, प्रजा इष्टमित्रों में अप्रीति कराना की ये सब असत्य हैं और जगत भी मिथ्या हैं। इत्यादि दुष्ट उपदेश करना आदि कुपात्रों के लक्षण हैं।

३. सत्यार्थ प्रकाश- एकादश समुल्लास पृष्ठ २९० – २९१ संस्करण, जनवरी २००९ प्रकाशक- आर्ष साहित्य प्रचार ट्रस्ट, दिल्ली
स्वामी दयानंद यहाँ पर स्पष्ट रूप से शैव नागा साधु के व्यवहार को गलत सिद्ध कर रहे हैं और किसी भी प्रकार के नशे को साधु के लिए वर्जित कर रहे हैं।
(खाखी) देख! हम रात दिन नंगे रहते, धूनी तापते, गांजा चरस के सैकड़ों दम लगाते, तीन-तीन लोटा भांग पीते, गांजे, भांग, धतूरा ली पत्ती की भाजी (शाक) बना खाते, संखिया और अफीम भी चट निगल जाते, नशा में गर्क रात दिन बेगम रहते, दुनिया को कुछ नहीं समझते, भीख मांगकर टिक्कड़ बना खाते, रात भर ऐसी खांसी उठती जो पास में सोवे उसको भी नींद कभी न आवे, इत्यादि सिद्धियाँ और साधूपन हम में हैं, फिर तू हमारी निंदा क्यूँ करता हैं?चेत बाबूड़े! जो हमको दिक्कत करेगा हम तुमको भस्म कर डालेगे।
(पंडित) यह सब असाधु मुर्ख और गर्वगंडों के हैं, सधुयों के नहीं! सुनों !
‘साध्नोती पराणी धर्मकार्याणि स साधु:’
जो धर्म युक्त उत्तम काम करे, सदा परोपकार में प्रवृत हो, कोई दुर्गुण जिसमें न हो, विद्वान, सत्योपदेश से सब का उपकार करे उसको ‘साधु’ कहते हैं।

स्वामी जी सत्यप्रेमी थे इसलिए उन्होंने स्वीकार किया कि सत्य की खोज में घर छोड़ने के बाद उनका अनेक मण्डलेश्वरो , बाबाओं से सम्पर्क हुआ । उनमे से एक धूर्त मण्डली ने उन्हें भांग का व्यसन लगा दिया । लेकिन मण्डली छोड़ने के बाद स्वामी जी ने उस व्यसन को त्याग दिया
। दयानन्द भक्त , लेखराम भी सत्यप्रेमी थे इसलिए उन्होंने भी इस प्रसंग का वर्णन कर दिया ।

जीवनी में व्यसन का वर्णन है ….तो ….उसके परित्याग का भी वर्णन है ।

अब ध्यातव्य एवं प्रष्टव्य है कि , क्या मनुष्य के जीवन की अल्पकालिक अवस्था को उसके सम्पूर्ण जीवन पर आरोपित करना बुद्धिमत्ता है ?????

एक मनुष्य शिशु अवस्था में शैया पर और वस्त्रों में ही मल – मूत्र त्याग देता है लेकिन उस अवस्था के समाप्त होने पर वह ऐसा नहीं करता और कोई उसपर यह आक्षेप नहीं करता कि वह – शैया पर और वस्त्रों में ही मल – मूत्र त्याग देताहै ।
इसी न्याय से स्वामी दयानन्द के जीवन की अल्पकालिक अवस्था ( भांग – व्यसन ) को लेकर उनके पूरे जीवन पर आक्षेप लगाना निराधार है ।

पूरी जीवनी को पढने के लिए समय और धैर्य की आवश्यकता है ।
दो-चार पंक्तियाँ पढने से न तो दयानन्द-चरित समझ आएगा और न ही दयानन्द-दर्शन ।

कुछ लोग इस बिन्दु पर निष्पक्ष भाव से चिन्तन करेंगे और बाकी तोते की भाँती रटी हुई पंक्तियाँ दोहरायेंगे ।
पाखंड खंडनी

रामपाल अज्ञानी तूने स्वामी दयानंद की महिमा नहीं जानी

हिंदी तक शुद्ध नहीं पढ़ पाने की योग्यता रखने वाले पाखंडी रामपाल ने स्वामी दयानंद पर अनुचित आक्षेप लगाया हैं की

महर्षि दयानन्द को श्रीमद्भगवत्गीता का भी ज्ञान नहीं था timeline फोटो कापी में लिखे व तान्त से सिद्ध है कि महर्षि दयानंद का अध्यात्मिक ज्ञान शून्य था। प्रकरण इस प्रकार है। एक रामगोपाल वैश्य जो वेदान्ती था। उस ने बहुत सी टीकायें (अनुवाद) गीता की देखी। गीता अध्याय
18 श्लोक 66 में ‘‘व्रज‘‘ शब्द है श्लोक 66:- सर्वधमान् परित्यज्य माम् एकम् शरणं व्रज ,अहम् त्वा सर्व
पापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः (अध्य 18 श्लोक 66)
इस गीता अध्याय 18 श्लोक 66 के अनुवाद में सर्व टीका कारों (अनुवादकों) ने ‘‘व्रज‘‘ शब्द का विपरित अर्थ ‘‘आना‘‘ किया है। जब कि ‘व्रज‘ का अर्थ जाना होता है। जैसे अंग्रेजी के शब्द (ळव) का अर्थ जाना होता है। यदि कोई इसका अर्थ ‘‘आना’’ करता है तो वह विपरितार्थ कर रहा है। जिस कारण से उस प्रकरण का यथार्थ भावार्थ नहीं जाना जा सकता।
इसी शंका का समाधान कराने के लिए ‘‘रामगोपाल वैश्य ने महर्षि दयानन्द से जानना चाहा कि आप बताईऐ ‘‘व्रज’’
का अर्थ ‘‘जाना’’ है ‘‘आना’’ किस कारण से किया है यह तो उचित नहीं है।
महर्षि दयानन्द ने शंका का समाधान इस प्रकार किया:- कृपया पढ़ें timeline फोटो कापी में लिखा है
स्वामी जी (महर्षि दयानन्द) ने कहा (उत्तर) दिया:-
‘‘शकन्ध्वादिषु पररूपं वाच्यम्’’ इस वार्तिक से वकार के अकार के आगे (परे जो) अकार रहा उसको तद्रूप हो गया अर्थात् वह शब्द
धर्म ही रहा परन्तु वास्तव में अधर्म है; अर्थ अधर्म होगा।
यह उत्तर दिया उस अज्ञानी महर्षि दयानन्द ने। लेखक ने लिखा है कि इस उत्तर को सुनकर रामगोपाल वैश्य बहुत प्रसन्न हुआ और (उसने) फिर पूछा कि कोई प्रमाण भी है ?
स्वामी जी (महर्षि दयानन्द) ने ऋग्वेद की दो-तीन श्रुतियों के प्रमाण दिये।
यह समझो की प्रमाण के रूप में ऋग्वेद के दो तीन मंत्र सुना दिए। जिस प्रकार सातवीं कक्षा के विद्यार्थी ने एक अंग्रेज यात्री के रास्ता पूछने पर अंग्रेजी भाषा में उत्तर देना गर्व की बात जान कर छुट्टी के लिए प्रार्थना पत्र (sick leave application) सुना दी। अंगे्रज माथे में हाथ मार कर चला गया। यह सोच कर कि इस मूर्ख ने क्या उत्तर दिया। मैंने जानना चाहा था मार्ग और यह
सुना रहा है अंग्रेजी में छुट्टी के लिए प्रार्थना पत्र। महर्षि दयानन्द अज्ञानी ने ऐसा समाधान किया।

gita

समीक्षा :-

उल्लू को दिन में भी न दिखे तो यह सूर्य का दोष नहीं हैं।

मुर्ख रामपाल जिसको हिंदी तक तो ठीक से पढ़नी नहीं आती वह संस्कृत का महापंडित स्वामी दयानंद द्वारा बताई गई शंका के समाधान में कमी निकालने का दुस्साहस करता हैं। वह कुछ ऐसा हैं जैसे विधवा बाँझ के बालक जन्म ले।

मुर्ख को यह भी नहीं पता की स्वामी दयानंद से पहले आदि गुरु शंकराचार्य ने अपने गीता के भाष्य में इस श्लोक का क्या अर्थ किया हैं।

GITA SHANKRACHARYA

यहां पर संस्कृत के महाविद्वान श्री शंकराचार्य जी भी लिख रहे हैं- “धर्मशब्देनात्राधर्मोऽपि गृह्यते” अर्थात धर्म शब्द से यहां पर अधर्म भी स्वीकार किया जाता है। अब ये निर्णय हो जाए कि गीता और संस्कृत रामपाल और रामपाल के चेलों को तो बिल्कुल भी नहीं आती। जैसे चोर को सब चोर नजर आते हैं वैसे ही रामपाल को सब संस्कृत ज्ञान शून्य नजर आते हैं। आगे भी पढें- “नाविरतो दुश्चरिता” अर्थात जो दुश्चरित= अधर्म= बुरे चरित्र = पाप आचरण= बुरी आदतों से दूर नही है वह ईश्वर की शरण नही प्राप्त कर सकता।
धर्म के 10 लक्षण – 1 धृति=धर्य धारण करना 2 क्षमा करना 3 दमः = मन की बुरी वृतियों का दमन (नियंत्रण) करना 4 अस्तेय = चोरी न करना 5 शौचं= शरीर और मन की शुद्धता (मन से सब का भला सोचना) 6 इन्द्रियनिग्रह = ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों का नियन्त्रण 7 धीः = बुद्धि पूर्वक विचार करके सब काम करना 8 विद्या= विद्या सीखने में सदा तत्पर रहना 9 सत्यं= मन, कर्म और वचन से सत्य का ही आचरण करना 10 अक्रोधः = क्रोध न करना।
महर्षि मनु ने धर्म के ये 10 लक्षण बताए हैं । क्या गीता इस धर्म को त्याग करने का उपदेश कर सकती है ? कभी नही।

रामपाल के अंधे चेलो , मूर्खों अब भी तुम्हारी समझ में नहीं आया की रामपाल खुद भी अंधकार में हैं और तुम्हें भी ले डूबेगा।
कबीर ने ऐसे पाखंडी के बारे में जिससे भ्रम मिटने के स्थान पर बढ़ते हो जाये देखो क्या कहा हैं

जो गुरु ते भ्रम न मिटे, भ्रान्ति न जिसका जाय ।
सो गुरु झूठा जानिये, त्यागत देर न लाय ॥

पाखंड खंडनी

Pakhandkhandani@gmail.com

पाखंडी रामपाल का इतिहास ज्ञान

history

एक इतिहासकार के रूप में रामपाल के दावों की समीक्षा:-

१. साहेब कबीर व गोरखनाथ की गोष्ठी

रामपाल अपनी पुस्तक अध्यात्मिक ज्ञान गंगा पृष्ठ 39 पर लिखता हैं एक समय गोरखनाथ (सिद्ध महात्मा) काशी (बनारस) में स्वामी रामानंद जी (जो साहेब कबीर के गुरु जी थे) से शास्त्रार्थ करने के लिए (ज्ञान गोष्ठी के लिए) आये। जब ज्ञान गोष्ठी के लिए एकत्रित हुए तो कबीर साहिब भी अपने पूज्य गुरुदेव स्वामी रामानंद जी के साथ पहुँचे थे। एक उच्च आसन पर रामानंद जी बैठे उनके चरणों में बालक रूप में कबीर साहेब (पूर्ण परमात्मा) बैठे थे। गोरखनाथ जी भी एक उच्च आसन पर बैठे थे तथा अपना त्रिशूल अपके पास ही जमीं पर गढ़ रखा था। गोरखनाथ जी ने कहा की रामानंद मेरे से चर्चा करो। उसी समय बालक रूप पूर्ण ब्रह्मा कबीर जी ने कहा – नाथ जी मेरे से चर्चा करें। पीछे मेरे गुरु जी से बात करना।
अब रामपाल पाखंडी के इस दावे की समीक्षा करते हैं –
योगी गुरू गोरखनाथ जी का समय 11वीं 12 वी शताब्दी स्वीकार किया जाता है। अलाउद्दीन खिलजी से सम्बन्धित इतिहास मे वर्णन मिलता है कि अलाउद्दीन खिलजी ने गोरखनाथ का मन्दिर गिराया था। अलाउद्दीन खिलजी का शासन काल 1353-1373 है। इस लिए गोरखनाथ जी का समय 12वी शताब्दी से बाद का नहीं है। सन्त कबीर दास जी का समय 1398-1518 है (कुछ के अनुसार 1440-1518) । जिनके समय मे200 साल से अधिक का अन्तर हो वह कैसे शास्त्रार्थ कर सकते हैं। रामपाल अपने चेलों को उल्लू बना रहा है।

२. तैमुर लंग और कबीर की भेंट

पाखंड गुरू रामपाल अपनी पुस्तक भक्तिबोध के पृष्ठ 84 पर लिखता है कि
जैसे एक रोटी तैमुरलंग ने कविर्देव (कबीर साहब) को दी थी, उसे कबीर साहेब ने सात पीढी का राज्य दे दिया।
समीक्षा:- रामपाल ने कबीरदास को बदनाम करने मे कोई कसर नहीं छोड़ी हैं। कोई भी विवेकी मनुष्य भक्तिबोध को पढ़ेगा तो सोचेगा कि जिस तैमूर लंग ने भारत को लूट कर हजारों निर्दोष भारतीयों को गाजर मूली की तरह काटा , जिस तैमुर लंग से हजारों गाँव उजाड़ दिए, हजारों अबला औरतों की अस्मत उसके सैनिकों ने लूट ली, लाखों भारतवासियों को बंदी बनाकर गुलामों के बाज़ार में बेच दिया।
उसी मतान्ध अत्याचारी मुस्लिम आक्रान्ता तैमुर लंग को कबीर दासने उसे सात पीढी तक राज्य करने का वरदान दिया ?क्या कबीर दास जी मे इतनी बुद्धि नहीं थी कि हजारों निर्दोषों का कत्ल करने वाले तैमूरलंग की सात पीढी का राज्य देना गलत है? तैमूर से ज्यादा रोटियां तो कबीर जी के माता पिता ने दी होंगी और उन भारत वासियों ने दी होगी जिन निरपराधों को तैमुर ने मौत की नींद सुला दिया था। तो फिर कबीर जी ने उन्हे राज्य क्यों नहीं दे दिया?
रामपाल कितना बड़ा जूठा हैं यह इतिहास को देखने से मालूम चलता हैं । तैमूर का जीवनकाल (9 अप्रैल 1336 से 18 फरवरी 1405) है।
कबीर दास जी का जन्म 1398 मे हुआ। तैमूर ने 17 दिसम्बर 1398 को दिल्ली मे मुहम्मद तुगलक से लड़ाई की। न तो कबीर दास 7 साल की आयु तक दिल्ली गए और न ही तैमूर अपने जीवन में कभी बनारस गया था। हमें तो पहले से ही मालूम हैं की रामपाल जूठा हैं पर क्या उसका यह सफ़ेद झूठ उसके अंधे चेलो की समझ में नहीं आता?

३. गुरु नानक और कबीर दास की ज्ञान चर्चा

अपनी पुस्तक अध्यात्मिक ज्ञान गंगा पृष्ठ-45-46 पर पाखंडी रामपाल की एक और हेराफ़ेरी सामने आती हैं।
एक दिन एक जिन्दा फकीर बेई दरिया पर मिले तथा नानक जी से कहा की आप बहुत अच्छे प्रभु भक्त नजर आते हो। कृपा मुझे भी भक्ति मार्ग बताने की कृपा करे। मैं बहुत भटक लिया हूँ। मेरा संशय समाप्त नहीं हो पाया हैं। जिन्दा रूप में कबीर परमेश्वर ने कहा की गुरु किसे बनाऊँ? कोई पूरा गुरु मिल ही नहीं रहा जो मन के संशय समाप्त करके मन को भक्ति में लगा सके।
स्वामी रामानंद जी मेरे गुरु हैं पर उनसे मेरा संशय समाप्त नहीं हो पाया हैं। नानक जी ने कहा मुझे गुरु बनाओ आपका कल्याण निश्चित हैं।
समीक्षा:- कबीर जी का जन्म हुआ सन 1398 में हुआ था जबकि गुरू नानक देव जी का जन्म हुआ 1469 में अर्थात कबीर दास और नानक जी की आयु में करीब 70 साल का अन्तर है। यदि यह भी माना जाए कि कबीर जी को गुरू नानक देव जी 20-30 साल की उम्र में मिले होंगे। तो क्या 20-30 साल के युवक गुरू नानक जी इतने अपरिपक्व थे कि 90-100 साल के वृद्ध कबीर दास को अपना चेला बनने की सलाह दी। वैसे भी यदि ये बेई नदी जालन्धर की काली बेईं है तो कबीर दास जी के जीवन मे जालन्धर जाने का कोई वर्णन नही है।
इसी पृष्ठ पर यह भी लिखा है कि गुरू नानक देव जी सतयुग मे राजा अम्बरीष, त्रेता युग मे राजा जनक (सीता माता जी के पिता और श्रीराम जी के श्वसुर) और द्वापर मे ॠषि व्यास के पुत्र सुखदेव जी थे।
समीक्षा:- अब सबको विचार करना चाहिए कि रामपाल बेसिरपैर की हांकता है और खुद को तत्वदर्शी सन्त बताता है। न तो किसी भी पुस्तक मे ये गप्प है और न ही स्वयं गुरू नानक जी ने कहीं पर ये कहा है कि मै पिछले जन्म मे क्या था। सच तो ये है कि कबीर दास और गुरू नानक देव जी दोनो ने समाज मे फ़ैले हुए अन्धविश्वास के विरूद्ध बिगुल बजाया। अब कबीर के भक्तों की करतूत देखिए। सन्त कबीर जी को रामपाल किस्म के लोगों ने ईश्वर बना दिया।

पाखंड खंडनी

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कबीर दास के दोहे

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कबीर दास एक दिन धरती पर वापिस आये और रामपाल को दूसरा कबीर बने बैठा देख उनके मुख से कुछ दोहे निकले।
इन दोहों से कबीर के मन में रामपाल के पाखंड को देखकर जो दुःख था वह प्रकट होता हैं। रामपाल के अंधे चेलो अब तो आंखे खोलो।

राम चन्द्र कह गये सिया से ऐसा वक्त आयेगा
पंडित गोली खायेगे और अनपढ़ वेद पढ़ायेगा

(यह दोहा रामपाल के पाखंड के विरुद्ध अपना जीवन बलिदान करने वाले करोंथा में शहीद होने वाले वेदों के विद्वान आचार्य उदयवीर जी को समर्पित हैं)

वेद का अर्थ निकाले रामपाल अनपढ़
कबीरा देख बोला दुल्हा आया गधीचढ़

कहे कबीर सुन भई साधो घोर कलजुग आयेगा
अनपढ़ रामपाल ज्ञान बाटयो खुब मुर्ख बनायेगा

रामपाल बैठा बरवाला में अपना फन उठाये
जिस जिस को डसवाना हो बरवाला हो आये

कहे कबीरा सुनो रे साधो रामपाल को अक्ल नहीं आनि
काहे जीवन व्यर्थ करे हो सुनो सकल दयानंद की वाणी

सकल जीवन कबीरा कह गया न करियो मूर्त की धुप
रामपाल खुद को कहे कबीरा और पिलावे चरण की धुल

कहे कबीरा सुन भाई दासो मैं हूँ राम का कुत्ता
जो रामपाल सा गुरु बना लियो पड़े उसके सर जूता

न बच सका जिससे कबीर रामपाल कहे मैं हूँ वह काल
माने जो रामपाल को ईश्वर उसकी अक्ल में हैं अकाल

वेद का अर्थ निकाले रामपाल अनपढ़
देख कबीरा बोला दुल्हा आया गधीचढ़

कहे कबीरा सुन भई दासो उसका मरम न कोउ जाना
कहे जो अपन को परमेश्वर उस सा मुर्ख न कोउ पाना

कबीरा खड़ा बरवाला में मारे उन उनको जूत
जो बनाओ मुर्ख रामपाल को गुरु वो हैं ऊत

कबीरा कहत इस संसार में मुर्ख किसको मानी
मुर्ख वो संसार में जो पाखंडी का भेद न जानी

रामपाल बोले तोतला ,मन में हैं उसके मैल
उससे तो साबुन भला ,जो निकाले तन के मैल

देखत रामपाल की पाखंड लीला भैया कबीर उदास
पाखंड के चक्कर में पड़कर जीवन का यूँ न करो नास

जूठे गुरु को जो परमेश्वर कहे वह औंधे मुँह पड़ेगा
अब भी नहीं संभले मूर्खों तो तब कुछ न बन पड़ेगा

कहे कबीर सुन भई दासो रामपाल दे औरन को उपदेश
खुद ही भटक रहियों औरन की नैया को लेन जायो परदेश

कहत कबीर सुन भई दासो जैसी संगत वैसा फल पाई
रामपाल से धूर्त के ले जाकर क्यूँ अपनी बहु बिगड़ाई

बातो से जो मुर्ख बनाये अपने को कहे संत धीर
लातो से करो सत्कार उसका कह गये भगत कबीर

दास कबीर कह गये स्वामी दयानंद सा न कोई
जो उन पर आरोप लगाये उससा मुर्ख न कोई

माया मरी न मन मरा पर मर गये दास कबीर
रामपाल तू अब भी नहीं सुधरा लेने आयेगे यम वीर

ईश्वर मिलने बरवाला जाते कहते रामपाल के चेले
ईश्वर मिलने मन अन्दर जाते पड़ गये जूठ के झमेले

बरवाला जावत जीवन गया पर मिला न मन का चैन
सत को कभी जाना नहीं इसलिए रहेगा तू सदा बैचैन

साईं कुछ अक्ल दीजिये मुर्ख बने न कोय
पाखंड के अड्डे बंद होए सुख से रहे सब कोय

लूट सको सब लूट लो दयानंद ज्ञान हैं अथाह
पाखंड में सब लूटा दिए फिर पाछे क्यूँ पछताह

कहे कबीरा सुन भई दासो सबसे बड़ा पाप हैं पाखंड
आपे मुर्ख औरन को भी मुर्ख बनावे रामपाल उद्दण्ड

कहता खुद को कबीरा कहता खुद को भगवान
हो रहा दिन पर दिन बुड्ढा दिख रहो नाशवान

रामपाल को देख कर हुआ कबीर परेशान

हिंदी तक आती नहीं बना हैं वेद विद्वान

कबीर दासो मेरी बात पर करना जरा विचार

टेढ़ा मुँह कर बोलता यह कैसा पूर्ण अवतार

करे काल की चाकरी रामपाल मक्कार

देख कबीरा रो रहा कोउ न सुने पुकार

कबीर तुम्हे खुद आकर अपने दोहो के माध्यम से कह रहे हैं की अब भी सुधर जाओ नहीं तो यह जीवन इसी प्रकार से नष्ट हो जायेगा।

पाखंड खंडनी

Pakhandkhandani@gmail.com